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सौरभ बरवाड़@भाटापारा- हमारे छत्तीसगढ़ में छेरछेरा पर्व पौष पूर्णिमा के दिन बड़े ही हर्षोल्लास एवं धूमधाम से मनाया जाता है। इसे छेरछेरा पुन्नी या छेरछेरा तिहार के रूप में भी मनाया जाता है। आज के दिन दान करने का बड़ा ही विशेष महत्व है, यह छत्तीसगढ़ के लोक जीवन पर आधारित है। यहां मनाये जाने वाले प्रत्येक तीज-त्यौहारों के पीछे कोई ना कोई धार्मिक मान्यताएं व किवदंतियां प्रचलित है।
छत्तीसगढ़ में मुख्यतः कृषि जीवनधारा के रूप में धान को देखा जाता है। यहां के किसान धान की बोनी से लेकर कटाई और मिंजाई के बाद अपनी कोठी की डोली में धान को रखते है और इसी दिन दान की परंपरा का निर्वहन भी करते है।
एक प्राचीन मान्यता के अनुसार छेरछेरा के दिन यहां के लोग शाकम्भरी देवी की जयंती के रूप में भी मनाते है। यहां ऐसी लोक मान्यता भी है कि प्राचीनकाल में अकाल पड़ने के कारण चारों तरफ सूखा ही सूखा था। बरसात ना होने के कारण चारों ओर हाहाकार मच गया था। लोग भूख और प्यास से अकाल मौत मरने लगे थे। तब दुख से संतप्त लोगों द्वारा विशेष पूजा-अर्चना की गई। इस पूजा प्रार्थना से प्रसन्न हो कर फल-फूल और औषधि की देवी माता शाकम्भरी प्रकट हुई और उसने इस भीषड़ अकाल को दूर कर सुकाल में बदल दिया। इससे चारों ओर खुशी का माहौल निर्मित हो गया।
आज के दिन छोटे-बड़े सभी वर्ग के लोग छेरछेरा दान मांगते है। दान लेते समय बच्चे – “छेरछरा माई, कोठी के धान ला हेर हेरा” कहते है। जब तक गृह स्वामी दान नहीं देते तब तक बच्चे कहते है – “अरन बरन कोदो दरन, जभैं देबे तभे टरन” इसका मतलब जब तक दान नहीं दोगे तब तक, हम यहां से नहीं जायेंगे। छेरछेरा पर्व पर हमे अमीरी-गरीबी की दूरी कम करने और आर्थिक विषमता को दूर करने का संदेश देता है। यह पर्व अहंकार के त्याग की भावना से है, जो हमारी परंपरा से जुड़ा है। सामजिक समरसता सुदृढ़ करने में भी इस पर्व का महत्व है।
इसी शुभ अवसर पर भाटापारा विधायक इन्द्र साव ने अपने निवास स्थान से छेरछेरा मांगने वाले सभी वर्ग के लेगों को यथा संभव दान प्रदान कर इस परंपरा का निर्वहन किया।